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निबंध

बेहया का जंगल और नई-नई घेरान

कृष्णबिहारी मिश्र


दुबहँड़ से कुछ ही आगे बढ़कर मेरी बस एक विशेष मुकाम पर रुकी। मेरे सहयात्री ने मुझे बताया, "यह बसरिकापुर मिडिल स्कूल है। यहीं पढ़ते थे हजारीप्रसाद द्विवेदी जो बहुत भारी विद्वान हैं।"

मैंने उस विद्यापीठ को मन-ही-मन प्रणाम किया।

"अपना जिला मामूली नहीं है। यहाँ बड़े-बड़े लोग हुए हैं। आज भी हैं, लेकिन आज इन फरेबी नेताओं के सामने कौन किसको पूछता है!" अपने सहयात्री की अंचल-निष्‍ठा के प्रति मैंने सहमति प्रकट की तो किंचित उत्साहित ओकर वे उस क्षेत्र का भूगोल, इतिहास और संस्कृति का मर्म अपने ढंग से समझाने लगे।

गायघाट-काटन। गंगा की ढाही का भयंकर दृश्‍य। बस कुछ दूर ही रुक गई। छाता उठाते हुए मेरे सहयात्री ने बड़े उदास स्वर में कहा, "लगता है, गंगाजी की कोख में पूरा इलाका ही समा जाएगा। और होगा भी क्या महराज! जहाँ पाप की बाढ़ में सारा जवार डूब गया है, वहाँ गंगाजी का इतना उग्र होना बेजा क्या है? पोंछ दे गंगा मैया पूरे जवार को एक ही चपेट में तो कलजुग का पाप ही दह-बह जाए।"

बस की सीढ़ी से नीचे पैर रखते मेरे सहयात्री को एक दूसरे अधेड़ यात्री ने टोका, "का पाँड़ेजी, यही भाखते हैं।"

"हमारे भाखने-ओखने से क्या होता है कुँवरजी। दीघारवाला परसों का मामला आपने सुना कि नहीं? पता नहीं ई जमाना क्या-क्या दिखाएगा!"

बाढ़ की वजह से गायघाट-काटन के सामने कुछ दूर पैदल चलकर दूसरी बस पकड़नी पड़ती है। और गाँव जाने के लिए रामगढ़ ढाला पर बस छोड़नी पड़ती है।

गाँव के रास्ते इतने बदल गए हैं कि कदम-कदम पर रुकना पड़ता है। प्रत्येक दरवाजे के सामने नई-नई घेरान घिर जाने की वजह से सहज रास्ते का अस्तित्व मिट गया है। मेरे प्रणाम के जवाब में विश्‍वामित्र भाई मुझे रास्ता दिखाते हैं,

"पिछवारे से जाना पड़ेगा। इधर की राह बंद हो गई है।"

मुझे थोड़ी असुविधा होती है। पिछवाड़ा बेहया के सघन उल्लास में डूब गया है। किंचित खीजते हुए मैं अपने दरवाजे पर पहुँचता हूँ।

पिछले पाँच-छह वर्षों से बेहया नामक वनस्पति का जगह-जगह जंगल उग आया है। इसे रोपना नहीं पड़ता और न तो सींचना ही पड़ता है। बेहया की एक दुबली डाल कहीं फेंकते ही जंगल खड़ा हो जाता है। बिना तप और बिना साधना के लहकनेवाली इस वनस्पति का नाम बहुत सोच-समझकर किसी ने रखा है। सावन-भादों तो दूर, बैसाख-जेठ में इसकी हरीतिमा ऐसी उल्लसित होती है कि आँख की पुतली जुड़ा जाए।

बेहया दूसरे की बाढ़ को रोकनेवाली वनस्पति है। जहाँ एक बार इसकी जड़ जम जाती है, वहाँ दूसरी वनस्पति का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। बड़ी त्वरित गति से फैलनेवाली यह वनस्पति दूसरे को पाँव पसारने की जगह नहीं छोड़ती। ऐसी है बेहया।

मेरे जवार में यह धारणा है कि बेहया का जंगल हरे साँप का आवास है। इसका धुआँ आँख की ज्योति को मंद करता है और इसकी लकड़ी से पकाया गया भोजन कुष्ठ को जन्म देता है। चारों धाम की तीर्थ-यात्रा से लौटे रामाधार बाबा अपने यात्रा-संस्मरण सुनाते यह सूचना देते हैं कि देश के अधिकांश हिस्से में बेहया के जंगल उग आए हैं।

विश्‍वामित्र भाई उन्मथित चित्त से कहते हैं, "दिन-भर की खटनी के बाद घर पहुँचकर जब आगे-पीछे ताकता हूँ, अँधेरा दिखाई पड़ता है। पुत्र के बिना गृहस्थ की गति नहीं होती, लोक-परलोक दोनों अकारथ जाता है।"

विश्‍वामित्र भाई की उदासी मन को छूती है।

'लूक! लूक!! लूक!!!' गाँव में हल्ला उठा है, 'मनेरिया ने 'लूक' लगवाया है।' लोग हँसी करते हैं, 'बाप रे बाप! पहले लूक लगाता था तो लोग झुलस जाते थे, अब लोग लूक लगवाते हैं।' बेटा के लिए दीघार के बाबा के यहाँ की भीड़ और बलिया-बैरिया बाँध पर दौड़नेवाली परिवार नियोजन विभाग की सरकारी गाड़ियाँ। एक ओर सरकारी 'लूक' के आकर्षण में उलझते लोग हैं, दूसरी ओर बेटा की साध पूरी करने के लिए दीघार के बाबा के यहाँ धरना देने वाली महिलाओं की भीड़ है। पूरा जवार अंधकार में डूब जाता है। क्या यह अंधकार ही पचीस वर्षों की स्वाधीनता की उपलब्धि है? मन में बार-बार प्रश्‍न घुमड़ता है - परिवार-नियोजन को अभावग्रस्त लोग थोड़े पैसे के प्रलोभन में और मनचले लोग अन्य सुविधाओं के आकर्षण में स्वीकार कर रहे हैं। इसी तरह एक दिन संसार-सुख के आकर्षण में लोगों ने अँग्रेजियत और ईसाई धर्म के चोंगा को स्वीकार किया था। बिना समझे-बूझे तब भी हमारे अज्ञान और अभाव से सौदा किया गया था और आज भी लोगों की गरीबी का अन्यथा उपयोग किया जा रहा है - नाना रूपों में, नाना वर्गों - व्यक्‍तियों द्वारा समझ नहीं दी जा रही है। गलत प्रलोभनों द्वारा लोगों को बहकाया जा रहा है। समझ को बहकाना आसान नहीं होता, इसलिए तिकड़मी लोग, नासमझी को जिलाए रखना चाहते हैं ताकि ज्योतिहीन जनता उन्हें 'गुणी व्यक्‍ति' समझती रहे। यही आज की समझ है, जिसके नीचे दबकर लोकमानस निष्‍प्रतिभ होता जा रहा है।

मैंने इस बार लक्ष्य किया, मेरे गाँव में लोग गाय-बैल को भी ताला में बंद करने लगे हैं। जैसे ये जीवंत प्राणी न हों, हल-कुदाल की तरह निर्जीव पदार्थ हों! बड़े खिन्न मन से मैं सोचता हूँ, अन्नपूणा की हरीतिमा जो सरेह में उल्लसित है, उसका पहरेदार कौन है? ईंट की पक्की दीवार काटकर जब मवेशी को लोग हाँक ले जा रहे हैं तो फिर सरेह को ताला में बंद करके सुरक्षित रखना क्या संभव है?

अपने गाँव के कुछ खास लोगों से बतियाने में मुझे विशेष सुख मिलता है। ऐसे ही 'मन के मानुष' हैं कप्‍तान साहब। कप्‍तान साहब कुछ दिन बंगाल में भी रहे हैं। बंगाल से उन्होंने 'ठेका' (बोली) उपलब्ध किया है, जो बात-बात में ठोकते रहते हैं। 'कष्टो बिना किष्टो पावा जाए ना।' हमारे जवार में कष्ट उठानेवालों का यानी श्रम-रुचि का दिनोंदिन अभाव होता जा रहा है, इसलिए 'किष्टो' को पाना कठिन होता जा रहा है। किष्टो यानी कृष्ण। कृष्ण जो गाँव से भागनेवाली अन्नपूर्णा को घेर लेता था और कृष्ण, यानी भागवत विश्‍वास की वह मूर्ति जिसके भरोसे बड़ी से बड़ी विपत्ति को मनुष्य सह लेता था और अपनी इस आस्था के बल पर त्रास की लहरों को पराजित कर देता था। स्थिति बदल गई है। न रही श्रम-रुचि और न रही आस्था। न कष्ट न किष्टो। न अन्नपूर्णा को जगाने वाली साधना रही और न गाँव से भागने वाली अन्नपूर्णा को घेरनेवाले कृष्ण जैसे सजग-सशक्‍त चरित्र रहे। इसलिए अन्नपूर्णा के पाँव गाँव से उठे ही रहते हैं और गाँव त्रास में डूब-उतरा रहे हैं आज अक्सर ऐसे लोग मिलते हैं जो पसेरी भर का मुँह लटकाए रहते हैं और जब उनकी गंभीरता टूटती है तो कुटिल हँसी हँसकर वातावरण की सहजता को मुँह बिराने लगते हैं। कप्‍तान साहब दूसरे तरह के हैं। मर्दानगी उनके व्यक्‍तित्व का एक आकर्षण है। चेहरे पर ना कभी मुर्दनी, न एक भी कुटिल रेखा। अपने फक्कड़ स्वभाव के चलते नाना प्रकार के अभाव को हमेशा-हमेशा के लिए आमांत्रित कर लिया है। लेकिन उन्हें उदास आज तक किसी ने नहीं देखा। इतना ही नहीं, दूसरों की उदासी तोड़ने के लिए सदा अपना घर फूँकने को उद्यत रहते हैं। कप्‍तान साहब से बात कर मन स्फूर्त होता है। बेहया का जंगल देखकर और उस की चारित्रिक महिमा सुनकर मन उदास है। कप्‍तान साहब भजन में मगन हैं। मैं उनसे पूछता हूँ, "बाबा, बेहया जाति की वनस्पति पहले तो नहीं दिखाई पड़ती थी?"

कप्‍तान साहब चमककर उत्तर देते हैं, "बेहया नहीं तो अब क्या तुलसी उपजेगी? जस-जस कली तप रहा है तस-तस बेहया का वन लहक रहा है। कली तप रहा है जेठ की दुपहरिया जैसा। 'कलिकाल बेहाल किए मनुजा, नहिं मानत कोउ अनुजा-तनुजा।' मेरा छिहत्तरवाँ लगा है। पहले के लोग लँगोटा के पक्के होते थे। बेटी-पतोहू का विचार रखते थे।

"बेहया तो तब से उपजने लगी है जब से तुला राम बाबा की मठिया में लोग रास रचाने लगे हैं! न लाज, न हया। भला ऐसा ढीठ जमाना होता है! किसी के चरित्र और बात का कुछ एतबार ही नहीं रहा। रात-भर घूम-घूमकर गवाह ठीक करो। कचहरी तक तुम्हारे खेवे-खर्चे से जाएँगे और वहाँ उल्टी गवाही देकर सारा मामला बिगाड़ देंगे। हमारा तो शिवाजी का रास्ता है - न किसी लालच में पड़ना, न किसी के बहकावे में आना। मर्द क्या जो किसी के बहकावे-फुसलावे में आ जाए! लेकिन अब तो न मर्द रहे, न मर्दानगी रही।"

कप्‍तान साहब भगत सिंह की जीवनी सुनाने का आग्रह करते हैं। "किशन सिंह, भगत सिंह, बाप रे बाप! ऐसा वीर परिवार सबके सब 'मरता'। मसलन है, 'मरता क्या न करता।' देश के लिए जो 'मरता' नहीं होगा, वह क्या खाक देश-सेवा करेगा? मैं तो 'मरता' हूँ शिवाजी, सुभाष बाबू और भगत सिंह की तरह। लालावाला खेत पर अकेले चढ़ गया था। इज्जत का मामला था। कुलबोरन लोग देह और जान के फेर में रहते हैं।" भगत सिंह की जीवनी का एक मार्मिक प्रसंग सुनाकर कप्‍तान साहब अपने सहज उत्साह में बोल रहे हैं।

बेहया के जंगल में बसे लोगों के तरह-तरह के बोल हैं। 'जब जइसन, तब तइसन, इहे ना बूझल से मरद कइसन।' अवसरवाद की दक्षता ही मर्दानगी की पहचान होती जा रही है। यह मर्दानगी आज अधिकांश लोगों में दिखाई पड़ रही है। मेरे गाँव-जवार में ही नहीं, पूरे देश में, कहूँ, पूरी दुनिया में। अवसरवाद की दक्षता अविरोध की साधना की प्रेरणा दे रही है। दुनिया के अधिकांश साधक, चाहे वे राजनीति के हों या साहित्य के, बेहया के जंगल में अविरोध की साधना में लीन दिखाई पड़ रहे हैं। दुनिया में उग्र होने वाली हिंसा की हवा और देश की वर्तमान दशा विरोध की वाणी की आतुर प्रतीक्षा कर रही है, किंतु वाणी के साधक अविरोध की साधना में लगे हैं। यह सच है कि जो अविरोध की साधना से सिंहासन का सुख उपलब्ध करते हैं, उन्हें समष्टि-चित का सम्मान नहीं मिलता। आज चूँकि सिंहासन का सुख भोगने की भूख बेकाबू हो गई है, इसलिए लोग अविरोध की साधना में लग गए हैं; विरोध की साधना को नासमझी समझ रहे हैं। आचार्य कृपलानी अपनी सहज व्यंग्य-शैली में कहते हैं, "कितना नासमझ है कृपलानी। काँग्रेस जब आजादी का जंग लड़ रही थी, कृपलानी उसके साथ था और काँग्रेस जब कुर्सी पर बैठी, कृपलानी उससे अलग हो गया।" ऐसे ना समझ! देशभक्‍त आज कम हैं। लोग समझदार हो गए हैं, इसलिए अविरोध की साधना में लग गए हैं।

अविरोध की साधना उन्हें सुहाती है जिनमें अतिरिक्‍त स्वार्थ-सजगता होती है, यानी जिनमें सरकारी-गैरसरकारी अलंकार-पुरस्कार पाने की प्रबल स्पृहा होती है या फिर जीवन-भर कुर्सी से चिपके रहने की चिंता से उनका चरित्र निस्तेज हो जाता है, वे ही अविरोध की साधना के आग्रही होते हैं। यह आग्रह मनुष्य को कहीं का नहीं रखता। सबको प्रीत करके सबसे मीठ बने रहने की हमारी स्पृहा हमें विरूप और प्रकाशहीन बना देती है।

किसी जमाने में 'अलख' की साधना करनेवाले का जोर था, लोक-मन पर 'मसान' जगानेवालों की धाक थी। आज बेहया की धुँई रमानेवाले और अविरोध की साधना करनेवाले को लोग अधिक पसंद करने लगे हैं। किंतु अपने चेहतों की भीड़ बढ़ाने के लिए और रोज-रोज बढ़नेवाली अपनी लोकेषणा को सुगम तरीके से बुझाते रहने के लिए गलत राह पर सरपट दौड़ना उचित नहीं माना जाएगा। इस दौड़ में ययाति की तरह जब हारकर हम मुँह के बल गिरेंगे तो कोई उठाने वाला नहीं मिलेगा।

मन उदास है कि पूरा देश बेहया-वन के उल्लास में डूब गया है और लोग अपने चारों ओर नई-नई घेरान की रचना करने को आकुल-व्याकुल हो उठे हैं। बेहया की बाढ़ बढ़ती जा रही है। घेरान छोटी होती जा रही है। भय बढ़ता जा रहा है, मन अधिक उदास हो जाता है। सोचता हूँ, मेरे गाँव-जवार के साथ ही क्या सारे देश का ग्रामीण परिवेश इतना अभिशप्‍त हो गया है कि वहाँ अब केवल बेहया का जंगल ही उगेगा? क्या गाँव में जन्मे मनीषियों को यह प्रातिभ-ज्योति प्राप्‍त हो गई है कि भारतीय गाँवों में अब अन्नपूर्णा और मनीषा का वास नहीं होगा, प्रकाश का अविर्भाव नहीं होगा? मुझे लगता है कि गाँव में जन्मे मनीषियों की अपनी जन्मभूमि के प्रति उदासीनता ही प्रकाश-रचना में सबसे बड़ा अवरोध है।

गाँव की मनीषी-संतान गाँव से उतना ही सम्बंध रखें जितने से उनका स्वार्थ सिद्ध हो तो गाँव में लहराने वाले बेहया-वन पर बसंत की मादकता हमेशा-हमेशा के लिए छा जाए तो अचरज क्या है? मुझे बार-बार चिंता होती है कि इन गूँगों को वाणी कौन देगा जब वाणी के देवता इनसे उदासीन हो गए हैं? इनके म्लान मुखों पर नई आशा की रचना कौन करेगा जब आशा के ज्योतिधर शहरों में सिमट गए हैं? 'महावीर स्वामी की जै' बोलनेवाली मेरे अंचल की ग्रामीण जनता को महावीर हनुमान और जैन ऋषि महावीर स्वामी के अंतर का सांस्कृतिक बोध कौन देगा? संस्कृति का मर्म समझनेवाली मेरे जवार की मनीषी-संतान अपने गाँव-घर के संपर्क को निछोह धक्का मारकर नगरोन्मुख हो गई है। और मेरा पूरा जवार जाने कब से संस्कृति का 'बटगाना' गा रहा है और जाने कब तक गाता रहेगा।

'बटगाना' यानी रास्ते का गाना। राह के एकाकीपन के भय से मुक्‍त होने के लिए राही अनेक गानों की अनेक बेमेल कड़ी मिलाकर अलाप लेता है उसकी 'टाँसी' से सरेह गूँजती है और राह काटती है। सरेह खलिहान की ओर जाते या फिर खलिहान से घर जाते ग्रामीण किशोर अकेलेपन के भय के भूत को बटगाना से मारते हैं। असल में बटगाना बाल-स्वभाव की व्यवस्था है, जो अकेले में अकेला पड़ जाने मुखर होती है। मेरे गाँव के बड़े-बूढ़े भी जब सांस्कृतिक 'बटगाना' गाते हैं तो यह मात्र उनकी अबोधता-अनिभिज्ञता का द्योतक नहीं है, बल्कि इस बात का भी संकेत है कि वे अकेले पड़ गए हैं।

मुझे कभी-कभी ऐसा लगता है कि मेरे जवार के अबोधजन ही नहीं, जिन्हें अपने बोध का बड़ा गुमान है, देश के वे नेतागण भी आज समाजवादी बटगाना गा रहे हैं। यह समाजवादी बटगाना अलग-अलग बेमेल कड़ियों को एक में मिलाकर बनाया गया है या बना लिया जाता है। मार्क्स, गांधी, धर्मनिरपेक्षता, भारतीय संस्कृति, परिवार-नियोजन, व्यवसायीकरण, गृह-उद्योग, सहकारी खेती, लोकहितैषी राज्य, लोकतंत्र, राष्ट्रीयकरण समाजवादी बटगाना में जाने क्या-क्या और जाने कितनी-कितनी कड़ियाँ सुनाई पड़ती हैं। लोकतंत्र की रक्षा और उन्नयन की गुहार भी और न्यायपालिका तथा प्रेस की स्वतंत्रता को कुंठित करने का कुटिल अभियान भी! जैसे 'रॉक ऐन रॉल' शैली में कोई भोजपुरी बिरहा गाने लगे। यही बटगाना आज ऊपर से नीचे तक लोकप्रिय होता जा रहा है। मेरे गाँव के किशोर या किशोर मन के प्रौढ़ अकेले में बटगाना गाते हैं। देश के नेता भरी सभा में बटगाना गाते हैं, जैसे गरीब जनता की भीड़ से उन्हें डर लगता हो भय के भूत से बचने के लिए समाजवादी बटगाना की टाँसी मारते हैं। मुझे लगता है, भय का यह सही उपचार नहीं है, क्योंकि बटगाना क्षणिक समाधान देता है। और जिसने हया-तत्व से मुक्‍ति पा ली है, बेहया की उल्लसित हरीतिमा से सुरक्षा का आश्‍वासन महसूस कर रहा है, वह अपने चारों ओर साँप की पलटन पाल रहा है। वह बटगाना गाकर अपने को आश्‍वस्त भले ही कर ले, उसके सामने खड़ी भीड़ की नंगी छाती उसके समाजवादी घूसे से छलनी होती जा रही है।

समाजवाद का नारा इतना मोहक है कि अंधकार में धँसी जनता ही नहीं, उसके जनार्दन यानी आज के अधिकांश राजनीतिक नेतागण समाजवादी ढोंग के शिकार हो गए हैं। और गांधीजी की दृष्‍टि में समाजवाद के जो श्रेष्ठ आचार्य थे, जयप्रकाश नारायण, उन्होंने घोषणा की कि समाजवाद गलत है। बीते युग का दर्शन है। गांधीवाद में ही आज की समस्या का सही समाधान है। सर्वोदय में ही मनुष्य का वर्तमान और भविष्य सुरक्षित है। उक्‍त घोषणा की प्रतिक्रिया बड़ी तेज हुई। लोगों ने कहा, 1942 की अगस्त क्रांति का अग्रदूत जयप्रकाश पागल हो गया। उसने कहा, जिसके हाथ में सत्ता थी और उन तमाम लोगों ने कहा, जो सत्ता हथियाने को आकुल-व्याकुल थे। जयप्रकाश पागल हो गया कि उसने अपनी प्रतीति बदल दी, दर्शन बदल दिया और उस फकीर का साथ पकड़ लिया जिसने गांधी के व्यक्‍तिगत सत्याग्रह का नेतृत्व किया था, जो सत्ता के विरुद्ध है और जो बेलाग कहता है, 'भारत पराधीन गाँवों का स्वाधीन देश है।' सो जयप्रकाश राष्ट्रपति की कुर्सी नहीं पा सकता, भारतरत्न का सरकारी अलंकार उसे नहीं मिल सकता। छोड़िए आसन-अलंकार की बात, तटस्थ भूमि पर खड़ा होकर जब वह लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा की गुहार लगाता है तो लोकतंत्र का ढोल पीटने वाले उसका मुँह दबाने दौड़ते हैं।

अपने मन की कमजोरी कहूँ, जो देश को उठाने का हल्ला करते, अपनी करनी-करतूत से देश को नीचे ले जाने वाले हैं। उनके बारे में - चाहे वे व्यक्‍ति हों या दल - मेरे मन में ऊँचा खयाल नहीं उठता। इसलिए मन उदास होता है जब देश-सेवा के नाम पर लोगों को स्वार्थ के सैलाब में डुबकी लगाते देखता हूँ, और उदासी तब और अधिक गहरी हो जाती है जब इन तिकड़म-कला-निष्णात राजनीतिकों की जय-जयकार करती अपने जवार की और पूरे देश की दिशाहारा जनता के म्लान मुँह पर मेरी नजर पड़ती है।

इतनी राजनीतिक पार्टियाँ बेहया के जंगल की तरह बढ़ने वाली! इतनी घेरानें! प्रदेश, जाति, भाषा! बोलियों को भाषा की मान्यता का आग्रह-आंदोलन! भाषा के आधार पर नए प्रदेश की कल्पना! जाति के आधार पर नए-नए कुनबों की रचना! अरे बाबा, इतनी संकीर्ण घेरानों की कल्पन-रचना न करो, अकेले पड़ जाओगे और दम घुट जाएगा। स्वाधीन देश के इतिहास को सँवारने-समृद्ध करने की जिम्मेदारी जिसके ऊपर थी, कैसा दुर्भाग्य है कि वह समाजवाद का सब्जबाग दिखाता रहा। उसका समाजवादी सब्जबाग बेहया का जंगल सिद्ध हुआ, जो सारे देश में छा गया है और जिसमें हरे साँप की पलघटन है, कुष्ठ के कीटाणु हैं, आँख की ज्योति को मारनेवाला सघन धुआँ है। हमारी पीड़ा बहुत कुछ आज वैसी है जैसी उस गुरु-शिष्य की थी जिनमें से एक अंधा था और दूसरा बहरा। अंधा जब गुड़ माँगता था, बहरा ढेला पेश कर देता है। जनता रोटी माँगती है, स्वदेशी सरकार उसे पंचवर्षीय योजना देती है। जनता गरीबी से उबरने का रास्ता पूछती है, सरकार उसके हाथ में 'निरोध' का पैकेट थमा देती है। जनता ज्ञान का प्रकाश माँगती है, सरकार समाजवादी नारे रटाती है। विवेकानंद ने यूरोप के ईसाई-धर्म प्रचारकों से कहा था, जो रोटी का भूखा है उसके सामने धर्म-पोथियाँ पेश करना उसका अपमान करना है। आज भारत की जरूरत रोटी है, धर्म नहीं। मुझे लगता है कि देश की वर्तमान जरूरत समाजवादी बटगाना गाने से नहीं पूरी होगी - पूरी होगी स्वदेशी चिंता-चेतना के सहज राग से, अन्याय, अनौचित्य के प्रति मीठ न बनकर विरोधी मुद्रा मुखर करने से, हया तत्व को जगाने से। वर्तमान त्रास से त्राण पाने की यही राह है।

मेरी प्रतीति है कि मनुष्य की विकास-यात्रा जब कभी अवरुद्ध हुई है, कारण उसका बेहया मन रहा है। आदमी में जब तक हया रहती है, वह अपनी संकीर्णता के अनुसार आचरण करने में हिचकता है। उसकी यह हया-हिचक धीरे-धीरे उसकी संकीर्ण धारणाओं को कमजोर बना देती है। किंतु जब आदमी बेहया बन जाता है, कोई अपकर्म-कुकर्म करते उसे संकोच नहीं होता और धीरे-धीरे उसमें उस ढीठ संस्कार का जन्म होता जो उसे जंगली कानून के राज्य में ले जाता है, जहाँ नाना प्रकार का अंधकार और संकीर्णताएँ फलती-फूलती हैं। हया मनुष्य को उदार, नम्नीय और संस्कृत बनाती है। उसके मन की घेरान को तोड़ती है। जब भीतरी घेरान टूट जाती है तब बाहरी घेरान के टूटते समय नहीं लगता। और जब बाहर-भीतर की घेरान टूट जाती है तो मनुष्य को सहज रास्ता मिल जाता है। इस सहज रास्ता को पाने के लिए घेरान को तोड़ना जरूरी है। जरूरी है, हया तत्व को जगाना और विरोध की साधना को दीप्‍त करना ताकि उस भय से हम मुक्‍त हो सकें जो छोटे-छोटे वर्गों में सिमटने-घुसने के लिए हमें मजबूर करता है। गाँव से भागती अन्नपूर्णा और मनीषा की रक्षा के लिए श्रीकृष्ण के चरित्र का आह्वान जरूरी है। कप्तान साहब कहते हैं, 'कष्टो बिना किष्टो पावा जाबे ना' किष्टो को पाने के लिए कठोर साधना करनी पड़ेगी। साधना से ही हया-बोध जगेगा। जब तक यह बोध नहीं जगता तब तक समाजवादी बटगाना बंद नहीं होगा और संस्कृति चेतना इतनी बहक जाएगी कि वह हमारे अंधकार और त्रास का समाधान नहीं दे सकेगी, बेहया का जंगल इतना सघन हो जाएगा कि फिर उसका उच्छेद कठिन हो जाएगा। और तब न तो खोई आस्था को पुनः पाना आसान होगा और न ताला की चिंता से मुक्‍त होना संभव होगा। सचमुच तब बड़ा कठिन होगा ढाही से बचने का रास्ता पाना।


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